To view this video please enable JavaScript, and consider upgrading to a web browser that supports HTML5 video
नवी मुंबई : भारतीय राजनीति में घटनाएं केवल घटनाएं नहीं होतीं, अक्सर वे किसी बड़ी रणनीति का हिस्सा होती हैं। जब उपराष्ट्रपति एवं राज्यसभा के सभापति श्री जगदीप धनखड़ ने अप्रत्याशित रूप से इस्तीफे की घोषणा की, तो संसद और जनमानस में हलचल मच गई। यह सवाल उठने लगा कि क्या यह इस्तीफा व्यक्तिगत असंतोष का परिणाम है, अथवा सदन में चल रहे अहम मुद्दों को हाशिए पर डालने का एक सुविचारित कदम?
भारतीय संविधान में उपराष्ट्रपति का कार्य अपेक्षाकृत गैर-विवादास्पद और गरिमामयी माना गया है। वे राज्यसभा के सभापति होते हुए भी आम तौर पर निष्पक्ष रहते हैं। किंतु बीते कुछ महीनों में धनखड़ जी के कई सार्वजनिक बयानों ने उन्हें विवादों के केंद्र में ला खड़ा किया। क्या यह असहजता उनके इस्तीफे का कारण बनी या यह एक राजनीतिक ‘डिस्ट्रैक्शन’ है। जब उपराष्ट्रपति का इस्तीफा मीडिया की मुख्य सुर्ख़ी बना, तब सदन में कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण मुद्दे चर्चा के लिए लंबित हैं।
विपक्ष द्वारा मांग की जा रही संयुक्त संसदीय समिति (JPC) कथित घोटाले और निगरानी से जुड़ी घटनाओं पर। किसान आंदोलन की दूसरी लहर, जिसमें न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) पर क़ानून की मांग फिर से उठ रही है।
युवा बेरोज़गारी और पेपर लीक घोटाले, जो सरकार की नीतिगत नाकामी का संकेत देते हैं। संवैधानिक संस्थाओं की स्वायत्तता पर प्रश्न जिसमें राज्यपालों की भूमिका, न्यायपालिका की स्वतंत्रता और मीडिया पर अंकुश शामिल है। ऐसे में उपराष्ट्रपति का इस्तीफा एक "संदेहास्पद समयबद्धता" को उजागर करता है।
क्या अब मुद्दों से ध्यान हटाने की साजिश है। यह प्रश्न मौलिक ही है। क्या यह इस्तीफा जनहित से जुड़े मुद्दों पर होने वाली बहस को रोकने के लिए एक “राजनीतिक पर्दा” है। विपक्ष आरोप लगा सकता है कि यह “ ध्यान भडटकाने की रणनीति” है। सत्ता पक्ष इसे “व्यक्तिगत सम्मान” और “लोकतांत्रिक गरिमा की रक्षा” कह सकता है। मीडिया का बड़ा हिस्सा भी अब केवल इस इस्तीफे पर केंद्रित होकर वास्तविक प्रश्नों से भटक रहा है।
यह लोकतंत्र की परीक्षा का भी क्षण यदि यह इस्तीफा वास्तव में एक उच्च नैतिक निर्णय है, तो उसकी प्रशंसा की जानी चाहिए। किंतु यदि यह केवल बहस को रोकने, असहमति को कुचलने और जनमत को भ्रमित करने का माध्यम है तो यह भारत के लोकतंत्र की बुनियाद को कमजोर करता है। सवाल यह नहीं कि इस्तीफा क्यों हुआ। सवाल यह है कि उसके बाद क्या दब गया। क्या छुपा दिया गया। राजनीतिक घटनाओं को उनके समय, संदर्भ और प्रभाव से काटकर नहीं देखा जा सकता। धनखड़ जी का इस्तीफा एक व्यक्तिगत निर्णय हो सकता है, परंतु उसकी “टाइमिंग” और “पार्लियामेंट्री इम्पैक्ट” को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। जनता को चाहिए कि वह नेताओं के भाषणों से अधिक, संसद में उठ रहे वास्तविक मुद्दों को सुने और समझे। राजनीति में कभी-कभी ‘इस्तीफा’ एक आवाज़ नहीं, एक पर्दा होता है। ताकि आप वह न सुन सकें जो वास्तव में बोला जा रहा है। अब सत्य क्या है यह आने वाले दिनों में स्पष्ट हो जाएगा तब तक में हमको राजनीतिक घटनाओं पर ध्यान रखने की आवश्यकता है।
Reporter - Khabre Aaj Bhi
0 followers
0 Subscribers